चंपा की टहनी और बसंत …

ये चंपे की सुनी टहनी
मत रो तुम चुपके- चुपके
तुम्हारे दुख जैसा मेरा भी दुख है
तुम्हारे बसंत की तरह
मेरा भी बसंत नहीं आया
वो देखो
आकाश का दिल निर्मल
तारे अधिक चटकीले
चांद अधिक उजला निकल आया
समीर बहने लगा, बहारें लौट आईं
डाली – डाली सज गई
हरी- हरी, कोमल- कोमल कपोलों से
बंद कलियां खिलकर फूल बनीं
वादियां फुलों से ढक गईं
फुलों की महक अधिक मादक हो उठीं
काले- काले भंवरे गुंजन करने लगे
प्यारी- प्यारी तितलियां निकल पड़ीं
छोटी- छोटी गौरिये
मधुर स्वर में स्वागत गीत गाने लगीं
बसंत के आगमन की खुशी में
धरती अधिक हसीन लगने लगी
चंपा भी सज गई
नई नवेली दुल्हनियां सी
मैं भी खो गई
अपने प्रीयतम की मधुर स्मृति में
और हो गई विभोर अपने बंसत पर
मेरे सारे रंजोगम मिट गए
मैं जैसे किसी बाग की मलिका बन गई
जिसमें मोहब्बत के
सुंदर- सुंदर फूल खिलने लगे
दुनिया के हर लोग, हर चीज
सपनों सी सुहानी लगने लगी
दिल मदहोश होने लगा
लेकिन जल्द ही
सारे सपने टूट कर बिखर गए
जब वे आए शराबी बनकर
मेरे लाख मना करने पर भी न माने
मैं तो लुटी गई, ठगी गई
उनके आ जाने से

– बालकृष्ण कसेर

(रचनाकार वरिष्ठ नगरिक श्री बालृकष्ण कसेर, नवदृष्टि समाजसेवी संस्था द्वारा संचालित नवदृष्टि प्रशांति वृद्धाश्रम, जिला कोरबा (छत्तीसगढ़) में निवासरत हैं)

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