बिहार विधानसभा चुनावों में गठबंधनों का दौर काफी दिलचस्प स्थिति में पहुंच गया है. साथ ही यह भी समझ में आने लगा है कि भारतीय जनता पार्टी अब इस राज्य में अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहती है. एनडीए में रहते हुए लोक जनशक्ति पार्टी का अलग से चुनाव लड़ना भाजपा की चाल लगती है.

ताज़ा सूरत यह है कि एनडीए में भाजपा, जेडीयू और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा आपस में सीटों का तालमेल करके लड़ रहे हैं, वहीं एनडीए का एक और घटक दल लोकजनशक्ति पार्टी अलग से चुनाव मैदान में उतरने को तैयार है क्योंकि उसे नीतीश कुमार का नेतृत्व स्वीकार्य नहीं है.

एलजेपी के बहाने नीतीश पर चोट

इस मामले में पेंच और भी हैं. एक पेंच यह भी है कि लोक जनशक्ति पार्टी अपने ज्यादातर उम्मीदवार उन्हीं सीटों पर उतारेगी जिन पर जेडीयू के उम्मीदवार होंगे और जिन सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार होंगे, उन पर एलजेपी अपने प्रत्याशी नहीं उतारेगी और भाजपा का समर्थन करेगी. अभी तक एलजेपी ने 143 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करने के संकेत दिए हैं.

ऐसे में स्थिति यह बनती है कि भाजपा एलजेपी और जेडीयू दोनों से घोषित या अघोषित गठबंधन करना चाहती है, लेकिन जेडीयू को गठबंधन का लाभ नहीं लेने देना चाहती.

अगर एलजेपी भाजपा की सहमति के बिना ही एनडीए से अलग होकर अपने प्रत्याशी खड़ी कर रही होती तो सबसे पहले तो केंद्र में एनडीए सरकार में कैबिनेट मंत्री का पद लिए बैठे रामविलास पासवान से मंत्रिपद छीनती. ऐसा न करना ही इस बात का सबूत है कि भाजपा की एलजेपी के साथ डीलिंग है.

भाजपा का असली खेल

अब सवाल यह है कि इस तरह का खेल करके भाजपा क्या और कैसे हासिल करना चाहती है? इसका जवाब भाजपा के स्थानीय नेताओं के कई महीनों से दिए जा रहे उन बयानों में छिपा है कि बिहार में मुख्यमंत्री अब भाजपा का होना चाहिए. खासतौर पर भूमिहार नेता गिरिराज सिंह कभी खुलकर तो कभी दबे सुर में मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जताते रहे हैं. हालांकि भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व इन खबरों को नकारता रहा है, लेकिन हर कोई ये जानता है कि छोटे नेता जो भी कुछ भी कहते रहे हैं, उसमें बड़े नेताओं की सहमति रही है.

यह बात भाजपा को हमेशा अखरती रही है कि उत्तर भारत की हिंदी बेल्ट में केवल बिहार ही ऐसा राज्य बचा है जहां भाजपा को अपना मुख्यमंत्री बनाने का मौका कभी नहीं मिला.

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