क्या कभी ऐसा हुआ है कि कोई पत्रकार किसी नेता से सवाल करे और वह इतना पसंद आ जाये कि अख़बार में विज्ञापन छपवाकर उसे बधाई दे दी जाये। ये अनोखी बात बिलासपुर में हुई है। अब से करीब 23 साल पहले चाम्पा में एक भीषण दुर्घटना हो गई, जिसमें अहमदाबाद से हावड़ा जा रही ट्रेन की पांच बोगियां हसदेव नदी में गिर गई। इसमें 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। दुर्घटना बड़ी थी इसलिये रस्म के मुताबिक तत्कालीन केन्द्रीय रेल मंत्री रामविलास पासवान जायजा लेने के लिये अगले दिन पहुंचे। चाम्पा से लौटने के बाद पत्रकारों से बातचीत के लिये जगह तय हुई बिलासपुर की चकरभाठा हवाई पट्टी। तब वह एयरपोर्ट नहीं एयरस्ट्रिप ही थी। वे विशेष विमान से आये थे। हम 25-30 पत्रकारों के अलावा सभी दलों के स्थानीय प्रमुख नेता भी वहां मौजूद थे। चाम्पा पर पासवान ने अपनी बातें रखीं, पत्रकारों ने कुछ सवाल किये। उनका जवाब मिला।
यह वही वक्त है जब बिलासपुर में रेलवे जोन मुख्यालय स्थापित करने की मांग एक जन आंदोलन बन चुकी थी। पासवान आने के कुछ दिन पहले ही अपने लोकसभा क्षेत्र हाजीपुर को रेलवे जोन मुख्यालय की सौगात दे चुके थे। सबके मन में रोष था। बिलासपुर कोयला और सीमेंट की लदान करने के कारण रेलवे को सबसे ज्यादा आमदनी देने वाला डिविजन और कहां हाजीपुर जैसा छोटा सा स्टेशन। पत्रकार वार्ता में पहली पंक्ति पर बैठकर मैंने इसी मुद्दे पर सवाल दागा। एक कारण बताइये, हाजीपुर क्यों और बिलासपुर क्यों नहीं? बाकी पत्रकारों ने भी समर्थन किया। तनातनी हुई। गज़ब का संयम, हाजीपुर को जोन मुख्यालय बनाने की वजह के कुछ बेअसर तर्क देते रहे और मैं गुस्से से भरे सवालों की बौछार करता रहा। पासवान ने माना कि बिलासपुर का हक है बनना चाहिये। हम उन्हें उत्तेजित करते रहे और वे हंस-हंस कर बात टालते रहे। वार्ता खत्म होने के बाद हाथ मिलाते, हाल चाल पूछते वे रन वे की तरफ बढ़े।
अगले दिन सुबह अख़बारों में चाम्पा दुर्घटना को स्वाभाविक जगह मिली साथ ही रेलवे जोन को लेकर पासवान के जवाब को भी ठीक जगह मिली। मगर एक छोटा सा कोना हैरान कर गया। उस बातचीत के दौरान फिरोज कुरैशी और स्व. बलराम सिंह ठाकुर भी थे। नव-भारत में एक विज्ञापन छपा। ‘बिलासपुर की जनता की भावनाओं के अनुरूप रेल मंत्री के समक्ष रेलवे जोन आंदोलन की मांग को मजबूती से उठाने के लिये पत्रकार राजेश अग्रवाल को हार्दिक बधाई- विनीत- बलराम सिंह ठाकुर, फिरोज कुरैशी।’ (फिरोज जी अभी हमारे बीच हैं, मैं नव-भारत में नहीं, देशबंधु में था।)
पासवान जी से इसके बाद 10 साल बाद मुलाकात हुई। सन् 2007 में। ग्रामीण रिपोर्टिंग पर उदयन शर्मा फाउन्डेशन की ओर से अवार्ड दिया जाता है। उस बरस मुझे इस अवार्ड के लिये चुना गया। कुनकुरी, जशपुर की आदिवासी बच्चियों की तस्करी को लेकर छपी लम्बी रिपोर्ट 200 प्रविष्ठियों के बीच से चुनी गई। यह पुरस्कार मुझे दिल्ली में रामविलास पासवान, वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी, आलोक मेहता और पुण्य प्रसून बाजपेयी की मौजूदगी में मिला। मंच से अवार्ड तो लिया।
उसके बाद जल-पान के लिये सब नीचे उतरे। मेहता जी ने पासवान से मेरा परिचय कराया। इत्मीनान से बातें हुई। बातचीत के दौरान मैंने उन्हें याद दिलाया कि मैं उसी बिलासपुर का वो पत्रकार हूं। पासवान ने ठहाके लगाये। मेहता जी को खुद सारा किस्सा बताया। श्रेय भी लिया कि आखिर बिलासपुर की मांग पूरी कर दी गई। प्रभाष जी भी सुनकर मुस्कुराये
पासवान जी ने एक युवक को बुलाया, कुंदन सिंह इनको अपना नंबर दे दो, दिल्ली आयें तो रुकें। इनका कुछ काम हो तो बतायें। कुंदन सिंह किसी सरकारी पद में नहीं था पर उनके सबसे घनिष्ठ कार्यकर्ताओं में एक रहा होगा। कुंदन से फिर साल दो साल बातें होती रही। उस वक्त पासवान केन्द्रीय इस्पात मंत्री थे। एक बार भिलाई आये। कुंदन सिंह ने फोन लगाकर मुझसे कहा मंत्री जी के साथ मैं भी भिलाई पहुंच रहा हूं। आ जाओ, छत्तीसगढ़ में तो मैं आप ही को जानता हूं। बेवकूफी कहिये या समझदारी, व्यस्तता का बहाना करके मैं नहीं गया। उसके बाद मुझे ऐसा कोई काम नहीं पड़ा कि कुंदन सिंह को फोन करूं। अब तो शायद उनका नंबर भी नहीं है।
पासवान के राजनैतिक फैसलों, अवसरवाद और सत्ता से चिपके रहने के आरोपों की समीक्षा मैं नहीं कर रहा हूं। पर दो मुलाकातों से समझ सका कि वे अपने इलाके में लोकप्रिय क्यों हैं। तीखे सवालों पर भी संयम नहीं खोना, दस साल बाद पुरानी घटना को याद कर ठहाके लगाना, जेहन में है। दलित समाज को आगे ले जाने में, उन्हें सम्मानजनक दर्जा दिलाने में उनके काम को याद रखा जाना चाहिये। समाजवादी आंदोलन से उपजे राजनीति के इस मौसम वैज्ञानिक को विनम्र श्रद्धांजलि।
– राजेश अग्रवाल, वरिष्ठ पत्रकार
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