राजनीतिक विश्लेषण : 2024 में 1989 की तर्ज़ पर चुनाव लड़ना होगा, तभी भारत के लोकतंत्र को तानाशाही बनने से बचाया जा सकता है

आज का अघोषित आपातकाल एक बेहद ख़तरनाक विचारधारा पर आधारित है। किसी भी विचारधारा का उद्देश स्वयं के अलावा अन्य सभी विचारों और विचारधाराओं को नकार देना है।

उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन की पुरानी परम्परा रही है। इस बार भी वहां के मित्रों से बात करने से यही लगता है कि सपा भाजपा पर हावी है, हालांकि मीडिया और सर्वे इसकी पुष्टि नहीं कर रहे हैं। जब एक न्यूज़ चैनल के मालिक से मैंने इस बारे में पूछा तो उन्होंने साफ़ साफ़ कहा कि ज़मीनी हक़ीक़त जो भी हो, उनकी अपनी मजबूरियाँ हैं। देश में व्यापार करना है, तो सत्ताधारी दल को नाराज़ नहीं किया जा सकता। इसके दो प्रमुख कारण उन्होंने गिनाए- पहला, राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का कोई राजनीतिक और संस्थागत विकल्प नहीं दिखता जो उसको चुनौती दे सके; दूसरा, भाजपा को सत्ता के सहारे अपने विरोधियों को जड़ों से कमजोर करने में जरा सा भी संकोच नहीं होता।

स्वतंत्र भारत में आपातकाल के दौरान में भी ऐसी स्थिति नहीं थी। आपातकाल एक अस्थायी संविधानिक उपाय था जिसके अंतर्गत न्यायपालिका के अति-सक्रीयता के कारण नागरिकों के मौलिक अधिकारों को ढाई सालों के लिए स्थगित कर दिया गया था। आपातकाल की अपनी कोई विचारधारा नहीं थी।

लेकिन आज का अघोषित आपातकाल एक बेहद ख़तरनाक विचारधारा पर आधारित है। किसी भी विचारधारा का उद्देश स्वयं के अलावा अन्य सभी विचारों और विचारधाराओं को नकार देना है। भाजपा की विचारधारा प्रारम्भ से ही राष्ट्रवादी-हिंदुत्व रही है। उसने 2004 के लोक सभा चुनाव (इंडिया शाइनिंग) को छोड़ सभी चुनाव इस विचारधारा के आधार पर ही लड़े और उन्हें बहुत हद तक हिंदी-भाषी राज्यों के साथ-साथ महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और उत्तर-पूर्वी राज्यों में सफलता भी मिली है।

भाजपा की राष्ट्रवादी-हिंदुत्व विचारधारा और उसके विशाल संगठन को रोकने में केवल क्षेत्रीय दल ही सफल रहे हैं। छत्तीसगढ़ और राजस्थान दो अपवाद हैं। इसका प्रमुख कारण है कि जहां जहां लोगों को मज़बूत क्षेत्रीय विकल्प दिखा, वहाँ वहाँ उन्होंने क्षेत्रीय मुद्दों को ही प्राथमिकता दी। मतलब साफ़ है- कुछ विशेष परिस्थितियों- जैसे पाकिस्तान से युद्ध या यूरी में सर्जिकल स्ट्राइक- को छोड़, सामाजिक शास्त्री क्रिस्टफ़र ज़फ़्फ़्रेलोट के अनुसार क्षेत्रियवाद राष्ट्रवाद से और जातिवाद हिंदुत्व से आज भी हावी है। इसके कारण ऐतिहासिक है।

अगर भाजपा को 2024 में सत्ता में तिबारा आने से रोकना है, तो क्षेत्रीय दलों को आपसी समन्वय बनाकर, एक प्रधान मंत्री के चेहरे को लेकर, देश भर में चुनाव लड़ने की रणनीति तैयार करनी होगी। सरल शब्दों में कहूँ तो उन्हें कांग्रेस के ख़ाली स्थान को संयुक्त रूप से क्षेत्रीय दलों को भरना पड़ेगा। मुझे विश्वास है कि इसका आग़ाज़ UP के परिणामों में देखने को मिलेगा।

केवल बंगाल की ममता, UP के अखिलेश, बिहार के तेजस्वी, आंध्र के जगन, तेलेंगना के KCR, तमिल नाड़ु के स्टालिन, केरल के विजयन और दिल्ली के केजरीवाल अगर एक हो जाएँ और महाराष्ट्र के पवार जैसे प्रभावशाली और अनुभवी नेता का मार्गदर्शन उनको मिले, तो 2024 में मोदी को विपक्ष का नेता बनाया जा सकता है।

मैं व्यक्तिगत रूप से मोदी जी के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। उनके नेतृत्व में प्रधान मंत्री आवास योजना, जल जीवन मिशन और स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत आम नागरिकों के जीवन स्तर में वास्तव में क्रांतिकारी सुधार हुए हैं। लेकिन अगर भारत के लोकतंत्र की स्वतंत्रता को बरकरार रखना है, तो एक मजबूत विकल्प का रहना आवश्यक है। अगर कांग्रेस गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर जैसे छोटे राज्यों में वर्तमान सरकारों के विरुद्ध भारी एंटी-इंकम्बेन्सी के कारण से सरकार बना भी लेती है, तब भी श्री राहुल गांधी को देश मोदी जी के विकल्प में स्वीकार करने के मूड में नहीं है। इसलिए भाजपा का विकल्प केवल क्षेत्रीय दल के नेता ही संयुक्त रूप से चुन सकते हैं।

इसके लिए उन्हें 1989 के लोक सभा चुनावों का अध्ययन करना पड़ेगा जब सभी विपक्षी दलों ने श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में देश की इतिहास के सबसे भारी बहुमत वाली राजीव गांधी सरकार को शिकस्त दी थी। अगर समाजवादी इतिहासकार अर्नोल्ड टॉन्बी की माने तो पूर्वी सभ्यता में इतिहास अमूमन खुद को दोहरता रहता है।

अमित जोगी
अध्यक्ष
जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे)

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