कोरबा (IP News). मत- मतांतर की वजह से अजीत जोगी ने कांग्रेस से किनारा कर 23 जून, 2016 को जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) का गठन किया। जेसीसी को क्षेत्रीय दल की मान्यता भी मिल गई और पार्टी ने 2018 के विधानसभा चुनाव में 5 सीटों पर जीत दर्ज कर अपना प्रभाव छोड़ा। 4 वर्ष बाद 29 मई, 2020 को अजीत जोगी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। अब बतौर सुप्रीमो जेसीसी की कमान अमित जोगी के हाथों में है। इन दिनों छोटे जोगी सक्रिय भी हैं। राज्य की भूपेश सरकार पर वे जुबानी हमला करने और विभिन्न मुद्दों को लेकर घेरने से नहीं चुक रहे हैं।

इधर, दो दिनों में अमित जोगी के ट्वीट और हरिभूमि समाचार पत्र में लिखे लेख पर गौर करें तो कहानी कुछ दूसरी बनती दिख रही है। इस लेख में अमित जोगी ने आरएसएस के सरसंचालक मोहन भागवत की तुलना देश के पहले प्रधानमंत्री पं. नेहरू से की है। उन्होंने लिखा है कि यह कहना गलत नहीं होगा कि श्री मोहन भागवत 21वीं सदी के पंडित जवाहरलाल नेहरू कहे जा सकते हैं। इस लेख में वीर सावरकर से लेकर राम जन्म भूमि, समान नागरिक संहिता, नागरिता संशोधन कानून का भी जिक्र किया गया है। अमित ने भागवत को नई वैचारिक क्रांति का पुरोधा बताने का प्रयास किया है।

इस लेख के आने के एक दिन पूर्व अमित ने कंगना रनौत के समर्थन में ट्वीट किया और लिखा कि खूब लड़ी मर्दानी, मनाली वाली रानी! एक अकेली वीरांगना महाराष्ट्र के पूरे सिस्टम पर भारी पड़ रही है। मणिकर्णिका के मलबा पर नए महाराष्ट्र का निर्माण होगा। इसके जरिए उन्होंने शिवसेना और कांग्रेस को निशाने पर लिया।

पहले ट्वीट फिर लेख, इसके क्या मायने निकाले जाएं? क्या अमित जोगी आरएसएस और भाजपा के करीब आने की कोशिश कर रहे हैं? अजीत जोगी के देहांत के बाद एक चर्चा चली कि जेसीसी का कांग्रेस में विलय हो सकता है, लेकिन ऐसी कोई कोशिश होती नहीं दिखी।

देखें अमित जोेगी का लेख :

क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भागवत जी अपने विज्ञान भवन में दिए गए क्रांतिकारी भाषण, जिसमें उन्होंने नेहरूवादी चिंतन को खुले मन से आत्मसात् किया है, के बाद २१वी सदी के पंडित नेहरू की भूमिका अपनाने की कोशिश में हैं? मैं आशा करता हूँ कि भाजपा के नेतृत्वकर्ता उनकी बातों को गम्भीरता से लेते हुए साम्प्रदायिक कट्टरवाद से समावेशी उदारवाद की राह पर चलेंगे।

दैनिक समाचार पत्र हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरे लेख को आप यहाँ पड़ सकते हैं। ये मेरा व्यक्तिगत चिंतन हैं। मैं ये भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं किसी भी राष्ट्रीय दल की न तो A टीम हूँ न B टीम हूँ; केवल C- मतलब छत्तीसगढ़- की टीम हूँ।
क्या मोहन भागवत, 21वी सदी के नेहरू बनना चाहते हैं ?…

रिया और कंगना के शोरगुल में भारत के आधुनिक इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण खबर दब गई है । हाल ही में दिल्ली के विज्ञान भवन में अपने उद्बोधन में आर.एस.एस. के सर संघचालक श्री मोहन भागवत ने जिस वैचारिक क्रांति का संकेत दिया है उससे मुझे ऐसा लगता है कि भागवत जी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के विचारों में अब ज्यादा अंतर नहीं रह गया है । वीर सावरकर ने 1923 में अपनी पुस्तक ‘ हिन्दु कौन है ? ’ में हिन्दुओं के लिए जो अत्यंत की संकीर्ण और सांप्रदायिक परिभाषा दी थी, उसको चंद ही मिनटों में भागवत जी ने सिर के बल खड़े कर दी है। सावरकर जी का मानना था कि हिन्दु वही है जिसकी मात्र भूमि और धर्म भूमि दोनों ही भारत है। मतलब उन्होंने सिरे से भारत में रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय के इस्लाम, ईसाई, फारसी, और यहूदी धर्म के मानने वालों को भारतीयता पहचान से पृथक कर दिया था। भागवत जी ने सावरकर जी की इस सोच को रद्द करते हुए हिन्दु की एक नई पहचान को परिभाषित किया है । उनके अनुसार जो भारत का नागरिक है, वह हिन्दु है । अर्थात हिन्दु होने और भारतीय होने में कोई फर्क नहीं है। नेहरू जी ने भी अपनी पुस्तक ‘भारत एक खोज’ में हिन्दु शब्द की ठीक यही परिभाषा दी थी। हिन्दु शब्द संस्कृत और प्राकृति का नही है। यह शब्द किसी वेद, दर्शनग्रन्थ, या उपनिषद में कही नहीं है। इसका सीधा साधा अर्थ यह है कि जो सिन्धु नदी के पार रहते है वे सब हिन्दु है। चीन में भी प्रत्येक भारतीय को ‘इन्दुरैन’ कहा जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि हिन्दु या इन्दु शब्द हमें विदेशियों का दिया हुआ है। जब इन विदेशियों ने भारत पर हमला बोला तो उन्होंने मंदिरों के साथ-साथ मस्जिद, दरगाहों और गिरजाघरों को भी तोड़ा। हमारी घर की बहु बेटियों की इज्जत और संपत्ति लुटने में भी किसी प्रकार का जाति या धर्म भेद नहीं किया । हिन्दु की इस समावेशी और उदारवादी परिभाषा को अपनाना आर.एस.एस. की वैचारिक क्रांति की इमारत का पहला स्तंभ है।

दूसरा स्तंभ राम मंदिर को लेकर है । 90 के दशक के राम जन्मभूमि मंदिर आन्दोलन ने भाजपा के दो चहरे उजागर किये थे। पहला चेहरा श्री लाल कृष्ण आडवानी का था जिन्होंने ‘कसम राम की खाते हैं मंदिर वही बनायेंगे’ जैसे नारे लेकर यह स्पष्ट कर दिया था कि वे बाबरी मस्जिद को तोड़कर उसके स्थान पर राम मंदिर के निमार्ण के लिए किसी भी हद तक जा सकते है। दूसरा चेहरा श्री अटल विहारी वाचपेयी का था जिन्होंने राजधर्म को राममंदिर के सर्वोपरि रखा । दो दशकों मतलब 2009 तक आर.एस.एस और भाजपा दोनो ने ही श्री लालकृष्ण आडवानी को भले ही नही किन्तु उनकी इस सोच को ज्यादा तवज्जो दी। 2009 के बाद जब राम जन्मभूमि और लालकिले दोनों की सत्ता पूर्ण रूप से भारतीय जनता पार्टी के पास आ गई तब भागवत जी और श्री नरेन्द्र मोदी ने सब को चौकाते हुए बाबरी मस्जिद के मलबे के ऊपर राम मंदिर बनाने का निर्णय उनके आधिपत्य की संसद और कार्यपालिका की जगह भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका पर छोड़ दिया। कट्टरवादी संगठनों के लाख मिन्नतों के बावजूद वे अपने इस निर्णय पर अडिग रहे। एक दशक बाद 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले आने के बाद ही उन्होंने राम मंदिर निर्माण का कार्य चालू किया। आर.एस.एस. और भाजपा के राम मंदिर मसले पर इस वैचारिक क्रांति के कारण ही देश के मुसलमानों ने भी राम मंदिर निर्माण को सहर्ष स्वीकार किया और भारत 1990 के दशक और 2002 के सांप्रदायिक नरसंहार की पुनरावृति से बचा। यह क्रांतिकारी सोच आज भी लागू है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् ने काशी और मथुरा की मस्जिदे तुड़वाने के लिए आन्दोलन चलाने का प्रस्ताव पारित किया है लेकिन संघ की इस मामले में चुप्पी सिद्ध करती है कि वो इसको लेकर बिल्कुल भी उत्साहित नही हैं। आर.एस.एस. की वैचारिक क्रांति का ये दूसरा स्तंभ दुनिया को यह सुखद संदेश दे रहा है कि भारत में सांप्रदायिक उन्माद का पिटारा अब हमेशा के लिए बंद हो चुका है। सभी धर्मों के कट्टर पंथी अलग-धलक पड़ गये है।

आर.एस.एस. की वैचारिक क्रांति का तीसरा स्तंभ समान नागरिक संहिता में देखने को मिलता है। विज्ञान भवन के उपने उद्बोधन में पंडित जवाहरलाल नेहरू के संवैधानिक सभा में समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर भाषणों को अपनाते हुए भागवत जी ने कहा की इसको लागू करने का निणर्य बहुमत पर छोड़ना कदापि उचित नही होगा क्योंकि ये ‘बहुसंख्यक तानाशाही’ को जन्म देगा । उन्होंने यह राय दी कि सर्व सम्मति से ही भारत में समान नगारिता संहिता को लागू किया जाना चाहिए क्योंकि इसके कई प्रावधानों को मुसलमानों और ईसाइयों के साथ-साथ हिन्दुओं को भी आपत्ती हो सकती है।

आर.एस.एस. कि वैचारिक क्रांति कि इमारत का चौथा और अंतिम स्तंभ नागरिता संशोधन कानून (CAA) को लेकर है । इसमें आर.एस.एस. और भाजपा के वर्तमान नेतृत्वकर्ता श्री नरेन्द्र मोदी की सोच में जमीन आसमान का अंतर देखने को मिलता है । विज्ञान भवन के अपने उद्बोधन में भागवत जी ने यह स्पष्ट कर दिया कि धार्मिक उत्पीड़न ही किसी को नागरिकता देने का एक मात्र आधार नही हो सकता क्योंकि उत्पीड़न राजनैतिक विचारधारा, सामाजिक और आर्थिक परिवेश, प्रथा, लिंग और यौन अभिविन्यास से भी उपज सकता है। इसलिए उन्होने शरणार्थीयों के लिए एक ऐसी सर्वव्यापी परिभाषा को अपनाने पर जोर दिया है जो मात्र धर्म या पंथ तक सीमित ना हो। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी समाजवादी इतिहासकार अर्नाल्ड ट्वानबी के साथ संवाद में कहा था कि वसुधैव कुटुम्बकम और आनो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत: के रास्ते पर सनातन काल से चलते आ रही भारतीय सभ्यता में सभी शरणार्थियों को नागरिकता प्राप्त करने का संपूर्ण अधिकार मिलना चाहिए। मुझे पूरी आशा है कि आर.एस.एस. की इस वैचारिक क्रांति के पहले तीन स्तंभों की तरह भाजपा और मोदी सरकार इस चौथे स्तंभ में भी संघ की राय का सम्मान करते हुए नागरिकता संशोधन कानून में जरूरी संशोधन करेगी।

26 जनवरी 1930 में लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन के अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘चार अप्राप्य स्तंभो’ की बात कही थी। उनके अनुसार स्वतंत्र भारत के निर्माण में ये चार अप्राप्य स्तंभ ऐसे हैं जिनके साथ किसी भी सूरत में कोई समझौता नही किया जा सकता। उनका तात्पर्य देश की संप्रभूता, लोकतंत्र, समाजवाद और धर्म र्निपेक्षता से था। 90 साल बाद के अपने उद्बोधन में भागवत जी ने फिर से ‘चार अप्राप्य स्तंभों’ का उल्लेख करके ना केवल राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की सोच में वैचारिक क्रांति का आगाज किया है बल्कि अगर प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक श्री डॉ वेदप्रताप वैदिक की माने तो उसे सचमुच में ‘राष्ट्रीय संघ’ की हैसीयत भी प्रदान करने की कोशिश की है। इसलिये मेरे दृष्टिकोण से यह कहना गलत नहीं होगा कि श्री मोहन भागवत 21वीं सदी के पंडित जवाहरलाल नेहरू कहे जा सकते है । मैं उनके वैचारिक साहस का सम्मान करता हूं।

अमित अजीत जोगी

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