हिंदी गीतों की दुनिया में कई मौसम आए और चले गए, लेकिन रफी का मौसम अभी भी जवां है। वे सदाबहार थे, सदाबहार हैं और आगे भी रहेंगे। हिंदी सिनेमा के गीत-संगीत की जब भी बात होगी, रफी उसमें हमेशा अव्वल नंबर पर रहेंगे। शहंशाह-ए-तरन्नुम मोहम्मद रफी की पुण्यतिथि पर विशेष पेशकश।

रफी के यादगार गाने

मो. रफी का गायन और उनकी शख्सियत किसी भी तरह अपने समकालीन गायकों से कमतर नहीं, बल्कि कई मामलों में तो उनसे इक्कीस ही साबित होगी। चाहे मो. रफी के गाये वतनपरस्ती के गीत ‘‘कर चले हम फिदा’’, ‘‘जट्टा पगड़ी संभाल’’, ‘‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी क़सम’’, ‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’, ‘‘हम लाये हैं तूफान से कश्ती’’ हों या फिर भक्तिरस में डूबे हुए उनके भजन ‘‘मन तड़पत हरी दर्शन को आज’’ (बैजू बावरा), ‘‘मन रे तू काहे न धीर धरे’’ (फिल्म चित्रलेखा, 1964), ‘‘इंसाफ का मंदिर है, ये भगवान का घर है’’ (फिल्म अमर, 1954), ‘‘जय रघुनंदन जय सियाराम’’ (फिल्म घराना, 1961), ‘‘जान सके तो जान, तेरे मन में छुपे भगवान’’ (फिल्म उस्ताद, 1957) हों, इस शानदार गायक ने इन गीतों में जैसे अपनी जान ही फूंक दी है। दिल की अटल गहराईयों से उन्होंने इन गानों को गाया है।

नेहरू ने दिया रजत पदक

जनवरी, 1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए जब उन्होंने ‘‘सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’’ गीत गाया, तो इस गीत को सुनकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखें नम हो गईं थी। बाद में उन्होंने रफी को अपने घर भी बुलाया और उनसे वही गीत गाने की फरमाइश की। पं. नेहरू उनके इस गाने से इतना मुतास्सिर (प्रभावित) हुए कि स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ पर उन्होंने रफी को रजत पदक देकर सम्मानित किया।

रफी को कई सम्मान-पुरस्कार मिले, दुनिया भर में फैले उनके प्रशंसकों ने उन्हें ढेर सारा प्यार दिया। लेकिन पं. नेहरू द्वारा दिए गए, इस पदक को वे अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान मानते थे।

फिल्मी दुनिया के अपने साढ़े तीन दशक के करियर में रफी ने देश-दुनिया की अनेक भाषाओं में हजारों गीत गाये और गीत भी ऐसे-ऐसे लाजवाब कि आज भी इन्हें सुनकर, लोगों के कदम वहीं ठिठक कर रह जाते हैं। उनकी मीठी आवाज जैसे कानों में रस घोलती है। दिल में एक अजब सी कैफियत पैदा हो जाती है।

रफी को इस दुनिया से गुजरे चार दशक हो गए, लेकिन फिल्मी दुनिया में उन जैसा कोई दूसरा गायक नहीं आया। इतने लंबे अरसे के बाद भी वे अपने चाहने वालों के दिलों पर राज करते हैं।

इंतकाल पर राष्ट्रीय शोक

31 जुलाई, 1980 के दिन यह सदाबहार फनकार हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गया था। जब उनका इंतकाल हुआ, उस दिन बंबई में मूसलाधार बारिश हो रही थी। इस बारिश के बावजूद, अपने महबूब गुलूकार के जनाजे में शिरकत करने के लिए हजारों लोग सड़कों पर उमड़ पड़े थे और उन्हें रोते-सिसकते अपनी आखिरी विदाई दी। हिंदुस्तान सरकार ने उनके एहतेराम में दो दिन के राष्ट्रीय शोक का एलान किया।

फकीर से मिली गाने की सीख

हिंदी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग को नया आयाम देने वाले रफी की पैदाइश 24 दिसंबर, 1924 को अमृतसर (पंजाब) के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुई थी। उनके परिवार का संगीत से कोई खास सरोकार, लगाव नहीं था। रफी ने खुद इस बात का जिक्र अपने एक लेख में किया था। उर्दू के मकबूल रिसाले ‘शमां’ में प्रकाशित इस लेख में उन्होंने लिखा है, “मेरा घराना मजहबपरस्त था। गाने-बजाने को अच्छा नहीं समझा जाता था। मेरे वालिद हाजी अली मोहम्मद साहब निहायत दीनी इंसान थे। उनका ज्यादा वक्त यादे-इलाही में गुजरता था। मैंने सात साल की उम्र में ही गुनगुनाना शुरू कर दिया था। जाहिर है, यह सब मैं वालिद साहब से छिप-छिप कर किया करता था। दरअसल, मुझे गुनगुनाने या फिर दूसरे अल्फाज में गायकी के शौक की तर्बियत (सीख) एक फकीर से मिली थी। ‘खेलन दे दिन चारनी माए, खेलन दे दिन चार’ यह गीत गाकर, वह लोगों को दावते-हक दिया करता था। जो कुछ वह गुनगुनाता था, मैं भी उसी के पीछे गुनगुनाता हुआ, गांव से दूर निकल जाता था।’’

साल 1935 में मो. रफी के अब्बा गम-ए-रोज़गार की तलाश में लाहौर आ गए। मो. रफी की गीत-संगीत की चाहत यहां भी बनी रही। मो. रफी की गायकी को सबसे पहले उनके घर में बड़े भाई मोहम्मद हमीद और उनके एक दोस्त ने पहचाना। इस शौक को परवान चढ़ाने के लिए, उन्होंने रफी को बाक़ायदा संगीत की तालीम दिलाई।

उस्ताद अब्दुल वाहिद खान, उस्ताद उस्मान, पंडित जीवन लाल मट्टू, फिरोज निजामी और उस्ताद गुलाम अली खां जैसे शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों से उन्होंने गीत-संगीत का ककहरा सीखा। राग-रागनियों पर अपनी कमान बढ़ाई, जो आगे चलकर फिल्मी दुनिया में उनके बहुत काम आई। आलम यह था कि मुश्किल से मुश्किल गाना, वे सहजता से गा लेते थे।

पहला नगमा 1941 में गाया

मोहम्मद रफी ने अपना पहला नगमा साल 1941 में महज 17 साल की उम्र में एक पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ के लिए रिकॉर्ड किया था, जो साल 1944 में रिलीज हुई। इस फिल्म के संगीतकार थे श्याम सुंदर और गीत के बोल थे, ‘‘सोनिये नी, हीरिये ने’’। संगीतकार श्याम सुंदर ने ही रफी को हिंदी फिल्म के लिए सबसे पहले गाने का मौक़ा दिया। फिल्म थी ‘गांव की गोरी’, जो साल 1945 में रिलीज हुई। उस वक्त भी हिंदी फिल्मों का मुख्य केन्द्र बंबई ही था। लिहाजा अपनी किस्मत को आजमाने मो. रफी बंबई पहुंच गए।

उस वक्त संगीतकार नौशाद ने फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे। उनके वालिद साहब की एक सिफारिशी चिट्ठी लेकर मो. रफी, बेजोड़ मौसिकार नौशाद के पास पहुंचे। नौशाद साहब ने रफी से शुरुआत में कोरस से लेकर कुछ युगल गीत गवाए। फ़िल्म के हीरो के लिए आवाज़ देने का मौक़ा उन्होंने रफ़ी को काफ़ी बाद में दिया।

नौशाद और रफी की जोड़ी

नौशाद के संगीत से सजी, ‘अनमोल घड़ी’ (1946) वह पहली फिल्म थी, जिसके गीत ‘‘तेरा खिलौना टूटा’’ से रफी को काफी शोहरत मिली। इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म ‘मेला’ (1948) का सिर्फ़ एक शीर्षक गीत गवाया, ‘‘ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में’’, जो सुपर हिट साबित हुआ। इसके बाद ही संगीतकार नौशाद और गायक मोहम्मद रफी की जोड़ी बन गई।

इतिहास गवाह है कि इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई सुपर हिट गाने दिए। ‘शहीद’, ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘उड़नखटोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’, ‘पाकीजा’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुगल-ए-आज़म’, ‘गंगा जमुना’, ‘बाबुल’, ‘दास्तान’, ‘अमर’, ‘दीदार’, ‘आन’, ‘कोहिनूर’ जैसी अनेक फिल्मों में नौशाद और मो. रफी ने अपने संगीत-गायन से लोगों का दिल जीत लिया। जिसमें भी साल 1951 में आई फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के गीत तो नेशनल एंथम बन गए।

खास तौर पर इस फिल्म के ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द’, ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ गानों में नौशाद और मोहम्मद रफी की जुगलबंदी देखते ही बनती है।

मशहूर संगीतकारों के साथ गाए गाने

1950 और 60 के दशक में मोहम्मद रफी ने अपने दौर के सभी नामचीन संगीतकारों मसलन शंकर जयकिशन, सचिनदेव बर्मन, रवि, रोशन, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, हेमंत कुमार, ओ.पी नैयर, सलिल चौधरी, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, खैयाम, आर. डी. बर्मन, उषा खन्ना आदि के साथ सैकड़ों गाने गाए। एक दौर यह था कि मो. रफी हर संगीतकार और कलाकार की पहली पसंद थे। उनके गीतों के बिना कई अदाकार फिल्मों के लिए हामी नहीं भरते थे।

हर मौक़े, हर मूड के गाने गाए

फिल्मी दुनिया में मो. रफी जैसा वर्सेटाइल सिंगर शायद ही कभी हो। उन्होंने हर मौक़े, हर मूड के लिए गाने गाए। जिंदगी का ऐसा कोई भी वाक़या नहीं है, जो उनके गीतों में न हो। मिसाल के तौर पर शादी की सभी रस्मों और मरहलों के लिए उनके गीत हैं। ‘‘मेरा यार बना है दूल्हा’’, ‘‘आज मेरे यार की शादी है’’, ‘‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब’’, ‘‘बाबुल की दुआएं लेती जा’’ और ‘‘चलो रे डोली उठाओ कहार’’। हीरो हो या कॉमेडियन सब के लिए उन्होंने प्लेबैक सिंगिंग की, लेकिन गायन की अदायगी अलग-अलग था।

रफी साहब के गाने का अंदाज भी निराला था। जिस अदाकार के लिए वे प्लेबैक सिंगिंग करते, पर्दे पर ऐसा लगता कि वह ही यह गाना गा रहा है। यकीन न हो तो भारत भूषण, दिलीप कुमार, शम्मी कपूर, देव आनंद, गुरुदत्त, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, धर्मेन्द्र, ऋषि कपूर आदि अदाकारों के लिए गाये उनके गीतों को ध्यान से सुनिए-देखिए, आपको फर्क दिख जाएगा। किस बारीकी से मो. रफी ने इन अदाकारों की एक्टिंग और उनकी पर्सनैलिटी को देखते हुए गीत गाये हैं।

रफी के लिए यह किस तरह से मुमकिन होता था? इस बारे में उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘किसी भी फनकार के लिए गाने की मुनासिबत से अपना मूड बदलना बहुत ही दुश्वार अमल होता है। वैसे, गाने के बोल से ही पता चल जाता है कि गाना किस मूड का है। फिर डायरेक्टर भी हमें पूरा सीन समझा देता है, जिससे गाने में आसानी होती है। कुछ गानों में फनकार की अपनी भी दिलचस्पी होती है। फिर उस गीत का एक-एक लफ्ज दिल की गहराइयों से छूकर निकलता है।’’

क्यों छोड़ दिया था गाना?

मोहम्मद रफी की जिंदगी में एक दौर ऐसा भी आया था, जब वे कुछ अरसे के लिए फिल्मों से दूर हो गए थे। वजह, साल 1971 में रफ़ी साहब हज पर गए थे। जब वह वहाँ से लौटने लगे, तो कुछ मौलवियों और उलेमाओं ने उनसे कहा, ‘‘अब आप हाजी हो गए हैं। लिहाजा आपको फ़िल्मों में नहीं गाना चाहिए।’’ मो. रफी यह बात मान भी गए और वाक़ई देश में लौटकर उन्होंने गाने गाना बंद कर दिया। उनके इस फैसले से उनके चाहने वालों को बड़ी निराशा हुई। सभी ने उनसे मिन्नतें कीं, वे गाने गाना दोबारा शुरू कर दें।

नौशाद के समझाने पर माने

आखिरकार नौशाद साहब ने उन्हें समझाया, “गाना छोड़ कर ग़लत कर रहे हो मियां। ईमानदारी का पेशा कर रहे हो, किसी का दिल नहीं दुखा रहे। यह भी एक इबादत है। अब बहुत हो गया, अब गाना शुरू कर दो।’’ तब रफ़ी साहब ने फिर से गाना शुरू किया। अपनी इस वापसी के बाद रफ़ी ने ’हम किसी से कम नहीं’, ’यादों की बारात’, ‘अभिमान’, ‘बैराग’, ‘लोफ़र’, ‘लैला मजनूं’, ‘सरगम’, ‘दोस्ताना’, ‘अदालत’, ‘अमर, अकबर, एंथनी’, ‘कुर्बानी’ और ‘क़र्ज़’ जैसी कई फ़िल्मों के लिए गीत गाए।

गाते थे, फिल्में नहीं देखते थे

रफी इंटरव्यू और फिल्मी पार्टियों से दूर रहते थे। हंसमुख और दरियादिल ऐसे कि हमेशा सबकी मदद के लिये तैयार रहते थे। कई फिल्मी गीत उन्होंने बिना पैसे लिये या बेहद कम पैसे लेकर गाये थे। मो. रफी ने सैकड़ों फिल्मों के लिए गाने गाये लेकिन खुद उन्हें फिल्में देखने का बिल्कुल शौक नहीं था। परिवार के साथ कभी उनकी जिद पर कोई फिल्म देखने जाते, तो फिल्म के दौरान सो जाते।

मो. रफी ने हजारों नगमे गाये, लेकिन उन्हें फिल्म ‘दुलारी‘ में गाया गीत ‘‘सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे।’’ बहुत पसंद था। यह उनका पसंदीदा गीत था।

रफी के यादगार गाने

‘चौदहवीं का चाँद हो तुम’ (फिल्म ’चौदहवीं का चाँद’, साल 1960), ’तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को’ (फिल्म ’ससुराल’, साल 1961), ‘चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे’ (फिल्म ‘दोस्ती’, साल 1964), ‘बहारों फूल बरसाओ’ (फिल्म ‘सूरज’, साल 1966), ‘दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर’ (फ़िल्म ब्रह्मचारी, साल 1968) और ‘क्या हुआ तेरा वादा’ (फिल्म ‘हम किसी से कम नहीं’, साल 1977) के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का फ़िल्म फेयर पुरस्कार मिला।

‘क्या हुआ तेरा वादा’ के लिए ही रफ़ी को पहली बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री के पुरस्कार से नवाजा। साल 1980 में अपनी मौत से ठीक दो दिन पहले मो. रफी ने फिल्म ‘आस-पास’ के लिए आखिरी गाना रिकॉर्ड किया था।

महज पचपन साल की उम्र में मो. रफी इस दुनिया से रुखसत हो गए। इस अज़ीम फनकार, की मौत पर उन्हें अपनी खिराजे अकीदत पेश करते हुए, संगीत के सिरमौर नौशाद ने क्या खूब कहा था –

कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया/

साहिल पुकारता है, समंदर चला गया/

लेकिन जो बात सच है कहता नहीं कोई/

दुनिया से मौसिकी का पयम्बर चला गया।

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